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वर्ल्ड थैलेसीमिया डे : झारखंड की 2% आबादी थैलेसीमिया से ग्रस्त, इनमें 80% आदिवासी... 15-20 साल औसत आयु के बाद हम खो देते है थैलेसीमिया पीड़ित

सदर अस्पताल के थैलेसीमिया डे केयर में ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए पहुंचे बच्चे।

बीमारी का सिर्फ एक ही इलाज- बोन मेरो ट्रांसप्लांट, लेकिन झारखंड में इसकी व्यवस्था ही नहीं
नतीजा : 1000 में सिर्फ 1 पीड़ित ही बाहर जाकर करा पाता है प्रत्यारोपण

Samachar Post, रांची : थैलेसीमिया एक गंभीर जेनेटिक रक्त विकार है। जिसकी गंभीर अवस्था में आमतौर पर पीड़ित को ताउम्र ब्लड ट्रांसफ़्यूजन, इलाज व प्रबंधन की जरूरत पड़ती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा थैलेसीमिया इंडिया के आंकड़ों की माने तो देश में हर साल लगभग 10,000 बच्चे बीटा थैलेसीमिया बीमारी के साथ पैदा होते हैं। वहीं, कुछ आंकड़ों की माने तो भारत की कुल जनसंख्या का 3.4 प्रतिशत भाग थैलेसीमिया बीमारी से ग्रस्त है। सिर्फ भारत ही नहीं, झारखंड में भी करीब 2% आबादी इससे पीडित है। इनमें ज्यादातर आदिवासी हैं। सदर अस्पताल में सेवा दे रहे झारखंड के इकलौते हेमेटोलॉजिस्ट डॉ. अभिषेक रंजन ने बताया कि सिर्फ सदर अस्पताल में 1039 थैलेसीमिक बच्चे डे केयर में रजिस्टर्ड हैं। 

सभी महीने में रूटिन ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए डे केयर पहुंचते हैं। हर दिन यहां 30 से 35 पीड़ितों की ट्रांसफ्यूजन की जाती है। उन्होंने बताया कि बीमारी के कारण बच्चों में कम आयु में ही ग्रोथ रूक जाता है। सेक्सुअल मेच्यौरिटी नही होती है इसके साथ ही शरीर के कई अंग भी खराब होने शुरू हो जाते हैं। इस बीमारी की चपेट में आने के बाद बच्चों को अधिकतम 15 से 25 साल की आयु तक ही ब्लड ट्रांसफ्यूजन के जरिए जिंदगी दी जा सकती है। इसके बाद हम इन्हें खोना शुरू कर देते हैं।

देश में थैलेसीमिया के सर्वाधिक मामले झारखंड से भी, पर यहां स्पेशियलिस्ट डाॅक्टर सिर्फ एक
भारत की तुलना में झारखंड में भी थैलेसीमिया के सर्वाधिक मरीज हैं। लेकिन इलाज के मामले में झारखंड पीछे है। क्योंकि यहां अब तक बोन मैरो ट्रांसप्लांट शुरू नही की जा सकी है, जिससे थैलेसीमिक बच्चों को नई जिंदगी दी जा सके। झारखंड में खून संबंधित रोग के लिए सिर्फ एक ही विशेषज्ञ चिकित्सक हैं। जो अपनी ओर से पीडितो को हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।


बीमारी के निदान का विकल्प बोन मैरो ट्रांसप्लांट, लेकिन इलाज कॉस्टली और डोनर भी नही करते मैच
डॉ. अभिषेक रंजन ने बताया कि थैलेसीमिया या सिकल सेल एनेनिया बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए बोन मैरो ट्रांसप्लांट बेहतर विकल्प है। लेकिन यह काफी कॉस्टली ट्रीटमेंट है। फिर भी अगर लोग बोन मेरो ट्रांसप्लांट के लिए तैयार भी हो जाएं तो डोनर मिलना काफी मुश्किल है। क्योंकि डोनेशन के क्राइटेरिया में डोनर का मैच करना आवश्यक होता है। 50 पीड़ितो में एक या दो के डोनर ही बोन मेरो ट्रांसप्लांट के लिए योग्य पाए जाते हैं।


हेमेटोलॉजिस्ट डॉ. अभिषेक रंजन से बातचीत
सवाल : बीमारी को राज्य से खत्म करने के लिए क्या क्या है उपाय?
जवाब : इसके लिए सबसे जरूरी है गर्भवती महिला के फिटस की स्क्रीनिंग कराना। क्योंकि 12 से 16 सप्ताह के भीतर यह जांच कराकर आसानी से पता लगाया जा सकता है कि गर्भ में पल रहा बच्चे थैलेसीमिक है या नही? या किसी तरह की जेनेटिक बीमारी तो नहीं। अगर बीमारी की पुष्टि होती है तो तब गर्भपात का विकल्प हमारे पास होता है। हमें यहां से ही बीमारी को खत्म करने की शुरूआत करने की जरूरत है। क्योंकि अगर बच्चे ने जन्म लिया, तो बीमारी के कारण 15 से 20 साल से ज्यादा जीवन नही जी सकेगा। इसके अलावा लोगों की काउंसिलिंग, शादी से पहले लड़का-लड़की का ब्लड टेस्ट कराना चाहिए। 

सवाल : थैलेसीमिया के रोगी क्या जिंदगी भर ब्लड ट्रांसफ्यूजन के सहारे सामान्य जिंदगी नही बिता सकते?
जवाब : नहीं, क्योंकि 5 साल के उम्र के बाद ही बच्चे में ग्रोथ रूकना शुरू हो जाता है। मानसिक रूप से भी कमजोर होने शुरू हो जाते हैं। पीड़ित बच्चे में बार-बार खून चढ़ाने और खून टूटने के कारण शरीर में काफी ज्यादा आयरन एक्यूमीडेट होता है। इसके कारण पैनक्रियाज, लीवर, हार्ट आदि डैमेज होने शुरू होने लगते है। और एक निश्चित आयु में पहुंचने के बाद पीड़ित की जान चली जाती है।

थैलेसीमिया के मुख्य लक्षण
  • थैलेसीमिया के मुख्य लक्षण जो बच्चों में 6 महीने से नज़र आने लगते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं।
  • शरीर में खून की कमी।
  • नाखून और जीभ में पीलापन आना।
  • चेहरे की हड्डी की विकृति।
  • शारीरिक विकास की गति धीमी होना या रुक जाना।
  • वजन ना बढ़ना व कुपोषण।
  • कमजोरी व सांस लेने में तकलीफ।
  • पेट में सूजन तथा मूत्र संबंधी समस्याएं आदि।

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